Thursday, June 17, 2010

7 - Remedies


Are You Getting Remedies!!! No....But loss only!!!!
There are no material remedies to remove your bad luck from your life. You yourself only can remove your bad luck from your life. Remove all bad deeds and bad thoughts from your life, your path to the life of pleasure will appear then. If you think some stone or some astrologer can remove your misfortune then you are getting loss only. Surprisingly, astrologers, that also in India, have started taking even Rs 50,000 also for predictions from a person, despite the fact that the astrologer himself doesn’t have sufficient knowledge of astrology and needs learning and knowledge of astrology very much to predict a bit. I was surprised to see this! How it could become possible! Because you don’t have sufficient knowledge of astrology, and these so-called astrologers take advantage of your astrological ignorance.
It’s your great fault that even after getting sufficient affluence in your life you don’t utilize your time in learning and developing your life but waste your time very much in works which neither give you any satisfactory pleasure nor bring any development in your life. You get what money for what work that is not due to your labour but your luck, and from where can you get luck! It is due to your accumulated Punya of your past births that is getting wasted every day. When you lose all your Punya you are ignored at the place of your fortune, and may adverse days start to talk with you.
You are safe in this world with your sacredness and good deeds only, no one can touch you and you can walk fearlessly in the dark also. But one who lives life arbitrarily, speaks lies, doesn’t do pious deeds every day, sleeps in the daytime, sleeps at the time of Sunrise and Sunset, copulates in the daytime, copulates much, angers much, thinks much about this world, worries much, sides with unscrupulous persons and do injustice, etc is seen somewhere robbed, murdered, raped, hit, etc later or sooner in his or her life. Even, though you are not doing any good or bad work but every moment you are losing yourself, as you Aatmaa are seeing the world and not your own real form of the brightest soul. .

Monday, June 7, 2010

६ - संसार - सुख का स्वर्ग! या पर्वत से खाई की ओर सरकता वाहन

इस लेख का प्रकाशन इस भौतिकवादी संसार के भौतिकवादी मनुष्यों के हॄदय के किसी कोने में बचे उस आध्यात्मिक लगाव का परिणाम है जो मुझे इसे प्रकाशित करने को विवश होना पडा। मैं जब अच्छे और पवित्र हृदय के लोगों को देखता हूं तो मेरे मन में मेरे हॄदय में एक संवेदना उभर जाया करती है उनकी वर्तमान और भविष्य की गति को जानकर। पर मैं केवल उनको वास्तविक लाभ और हानि का मार्ग बता सकता हूं, जानकर वैसा ही उपाय करना तो उनपर ही निर्भर है। मैंने अभी तक जितनी भी पुस्तकें प्रकाशित कीं, उनमें दी गयीं आध्यात्मिक जानकारियों के अनुसार अपने जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन लाने का प्रयास किया ऐसा एक भी व्यक्ति मेरी अनुभूति में नहीं आया है अभी तक। सारी आध्यात्मिक चेतावनियां मात्र अध्ययन - मनोरंजन ही बनकर रह गयी हैं, अभी तक।
मेरा वर्तमान दुःखभरा हो सकता है, पर मैं जिस पथ पर चल रहा हूं वह अन्धकार से प्रकाश की ओर, संकट से सुरक्षा की ओर, दरिद्रता से समृद्‌धि की ओर ले जा रहा है। मुझे ले जा रहा है, तुम्हें नहीं। तुम मुझे कितनी भी हानि पहुंचाने का प्रयास करो, इससे मेरा न केवल कुछ नहीं बिगडेगा अपितु मुझे अन्ततः लाभ ही मिलेगा, क्योंकि सांसारिक लाभ या हानि वास्तविक लाभ या हानि नहीं है, वास्तविक लाभ या हानि तो है अपने आत्मप्रकाश को बढाना या खोना। और सांसारिक दुःखद परिस्थितियां मन को वैराग्य देकर अप्रत्यक्ष रूप से मुक्तिमार्ग पर आगे बढने प्रेरणा देती हैं। अपने वास्तविक लाभ का मार्ग दो प्रकार से सिद्‌ध होता है - एक तो मन को संसार के चिन्तन से अधिक से अधिक मोडकर आत्मा को अपने प्रकाश के लुप्‍त होने से बचाना, और द्वितीय, अधिक से अधिक समय तक निरन्तर अपने वास्तविक रूप - प्रकाशरूप मुक्‌त आत्मा और तत्‌पश्‍चात्‌ ब्रह्‌म - के ध्यान में लीन रखना। इससे मेरी आत्मा रूपी अनुभूति में निरन्तर संसार-सम्पर्क से जो अन्धकार भर गया है, उस अन्धकार में शनैः शनैः प्रकाश के कण समाने लगते हैं, और ये ही प्रकाश के कण फैलते-फैलते मेरे लिये इस संसार में भी प्रकाशभरे दिन लाते हैं। जिन मार्गों पर मैं कभी असफल, निराश, और दुःखी चला था, उन्हीं मार्गों ने कालान्तर में मुझे अपने ऊपर सफ़ल, उत्साहित, और प्रसन्नचित्त चलते देखा है। पूर्वकाल के ऐसे कई उदाहरणों से मैं आज भी पूर्ण आशान्वित हूं - जिस स्थान पर उन्नति की आशा में मुझे रोना हाथ लगा था वहां मुझे ऊंचाई मिलेगी। निःसन्देह।
इसके विपरीत, सांसारिक सुखों को बटोरने में रमे मानव का क्या होता है! जिस मार्ग पर चलते हुए उसके आगे-पीछे लोग लगे रहते थे, उसकी समृद्‌धि और प्रसन्नता का कहीं कोई अन्त नहीं मिलता था, वही पथ अब उसे एकाकी चलता पाता है, जिस स्थान को देख उसकी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं थी, वहां उसे अब केवल रोना ही हाथ आता है। ऐसा क्यों! उसके आत्मा के प्रकाशमय वातावरण में सांसारिक अन्धकार के कण बहुत समा गये हैं जो उसे निराशा और दुःख की अनुभूति दे रहे हैं। साथ ही पुण्य भी तो बहुत निकल गया है!!!!! आज जितना भी उछ्ल लो इस संसार में, न्यूनतम दो कारणों से आनेवाले दिन तुम्हें दुःख देंगे - एक तो तुम्हारे अपने ही पुण्यों के न्यून हो जाने के कारण, और द्वितीय यह कि संसार निरन्तर पतन की ओर अग्रसर है, दिन-प्रतिदिन समाज और समाज के लोग अपने स्वभाव, कर्मों, आदि में नीचे गिरते जा रहे हैं, सुरक्षा और सुविधा की न्यूनता होती जा रही है, दुष्ट और मलिन लोगों के हाथ में पावर्‌ रहने लगा है, उनके आगे यदि सिर झुका दिया तो अब तुम्हारा क्या बचा!
जानने में आया कि एक एयर्‌लाइन्स्‌ ने अपने कितने ही कर्मचारियों को पलक झपकते ही फ़ुट्पाथ पर ला दिया। अब वे कर्मचारी कहां से अपने लोन चुकायेंगे और कैसे अपने बच्चों को पढायेंगे! ऐसे दुर्भाग्य की घटना किसी भी के साथ घट जा सकती है। जब यह घटना घट जायेगी तब तुम मुक्‍तात्मस्वरूप का ध्यान नहीं कर पाओगे। सारा संसार तुम्हें जलता दिखेगा। तुम कैसा भी जौब्‌ किसी भी अनुबन्ध पर स्वीकार करोगे। अब तुम्हारा भविष्य आत्मा के केवल पतन ही पतन को देखेगा। समय रहते प्रयास करना होगा। कैसा प्रयास! केवल सनातन अद्वैत दर्शन ही तुम्हें वास्तव में आध्यात्मिक उन्नति दे सकता है।
जो अनुचित करते हैं उन्हें तो दुःख पाने की योग्यता प्राप्त हो जाती है। परन्तु कोई यह सोंचे कि वह सब अच्छा-अच्छा ही करे तथा उसे परिणाम में सब अच्छा-अच्छा ही मिले, तो कुछ समय तक या लम्बा भी ऐसा मिल भी जा सकता है, परन्तु कभी उसे ऐसा झटका लगता है वह सोंचता ही रह जाता है कि उसने तो सदा अच्छे ही मार्ग का अनुसरण किया, कोई अनुचित कार्य नहीं किया, तब यह दुःख उसे क्यों मिला! क्योंकि अविद्‌या में स्थित यह सारा संसार कोई पंक या कोयलाखदान ही है - कींचड या कालिख तो लगेगा ही, कितना भी बचकर कार्य करो, भले ही न्यून लगे या अधिक लगे! यह संसार हमें प्रेरणा देता है नीचे गिरने की - अपने स्वभाव को अपने विचारों को और अधिक अशुभ कर लेने की। समाज में यदि बिगडे लोग भरे पडे हों तो आप अपने नम्र स्वभाव को अधिक दिन तक बनाये न रख पाओगे, स्वभाव को कडा बनाना पडेगा - आरम्भ में तो यह दिखावटी होगा परन्तु आगे चलकर ऐसे ही स्वभाव का अभ्यास हो जायेगा। ऐसे ही अन्य भी अनेक पतन की स्थितियों को अपनाना पडेगा। कहीं किसी कार्यालय आदि में कर्म करती तो अधिकतर स्त्रियों का विवाहेतर सम्बन्ध रहता है - स्वेच्छा से या विवशता से। अब ऐसी स्त्रियों से किस मुक्‍ति की आशा की जा सकती है! जीना है तो इस संसार की अनेक अशुभताओं को स्वेच्छा से या विवशता से भी स्वीकार करना ही पडेगा - जबतक कि तुम सनातन अद्‌वैत दर्शन के दिखाये पथ का सच्चे अर्थों में अनुसरण नहीं करते।
केवल सनातन अद्‍वैत दर्शन के दिखाये पथ का अनुसरण कर ही अधिक से और अधिक सुख की ओर बढा जा सकता है, और ऐसा बढा जा सकता है जहां केवल बढना ही है।
किसी भी जन्मकुण्डली में पंचम भाव में या पंचमेश के संग पापग्रहों राहु या केतु का होना यह बताता है कि पिछले जन्मों के पुण्यों से इस जन्म में जितनी कितनी भी लाभ प्राप्‍ति हो जायेगी, परन्तु इस मनुष्य का स्वभाव केवल सुखोपभोग का है, पुण्यनिर्माण का नहीं, जिस कारण से अगले जन्म में पुण्य का कोष बहुत न्यून या रिक्‍त मिलेगा जो पतन को बताता है। परन्तु यदि इच्छो तो अपने भविष्य को पतन से बचा सकते हो। क्या यह सम्भव है कि जन्मकुण्डली से ज्ञात भविष्य को परिवर्तित कर सकते! हां, कैसे! यह मुझसे जान सकते।
जिसके संग तुम मनोरंजन कर रहे हो, आनन्द ले रहे, उसका मूल्य तुम्हें चुकाना ही पडेगा - भले ही शीघ्र या विलम्ब से। अतः जिस किसी से तुम सहायता न लेना। नहीं तो उसकी छोटी भी सहायता कल तुम्हें बहुत हानि पहुंचा सकती है। जिसके संग तुमने एक हंसी, एक स्मय भी प्राप्‍त किया है, उसे एक दिन तुम्हें लौटाना ही पडेगा। यदि नहीं लौटाया तो वह वसूल कर ले सकता है। यदि वह दुष्‍ट होगा तो सोचो वह तुम्हें कितना दुःख और हानि भी देगा साथ में। अतः यहां तक कि किसी से बात करने के पूर्व भी विचार कर लो, सहायता लेने की तो बात दूर। तुम किसी को मूर्ख बनाकर या ठगकर भागकर जाओगे कहां! इसी संसार में तुम्हें वह ठगा वस्तु लौटाना ही पडेगा, इस जन्म में या अगले जन्म में भी।
जैसे पशु का मारा जाना कोई महत्‍त्व की बात नहीं मानी जाती, वैसे ही यदि तुमने अपने जीवन को पशु के समान कुल २४ घण्टे में एक भी घण्टा सच्चे अध्यात्म को दिये विना बीताया, तो तुम्हारे भी जीने का या मारे जाने का कोई महत्‍त्व नहीं।
जहां सच्चा प्रेम होता है वहां एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव होता है। यदि सम्मान का भाव न हो तो वहां सच्चा प्रेम भी सम्भव नहीं। जितना प्रेम उतना सम्मान या महत्‍त्व की भावना होती है। इससे अधिक मुझे प्रेम करनेवाला दिखता नहीं, अथवा इसके संग मेरी कामनायें प्राप्‍त हो जा सकती हैं ऐसी आशा कर प्रेमी प्रेमिका को और प्रेमिका प्रेमी को चुनती है। यह प्रेम स्वार्थ पर आधारित होता है, अर्थात्‌ कोई अधिक प्यारा या लाभदायक दिख रहा होता तो वही चुना जाता। यह सांसारिक प्रेम है। और इसी कारण से यहां सच्चा सुख मिल ही नहीं सकता। सनातन अद्‍वैत दर्शन तुम्हें वह मार्ग दिखाता है जिसके अवलम्बन से एक भिखारी धनी बन जा सकता है, धनी राजा बन जा सकता है, राजा तेजस्वी व दिव्य शक्‍तियों से युक्‍त बन जा सकता है, पश्‍चात्‌ वह समस्त बन्धनों से मुक्‍त दिव्यतम आत्मा के रूप में पुनः आ जा सकता है। परन्तु यह सब स्थिति पाने में निरन्तर प्रयास लम्बे समय तक लगाना पडता है। मुक्‍त आत्मा पूर्णरूप से प्रकाश ही प्रकाश है - सत्यता में और अनुभूति में भी। जब संसार में आत्मा आता है तब यह प्रकाश अनुभूति में निरन्तर न्यून से न्यूनतर होता जाता है, और अनुभूति में ही आत्मा में अन्धकार अधिक से अधिकतर होता जाता है। आत्मा प्रकाश है, संसार अन्धकार। आत्मा अविद्‍या अर्थात्‌ अन्धकार में संसार की कल्पना करता है - जितना अधिक संसार से सम्पर्क करता है वह अपने को अन्धकार के रूप में उतना ही अधिक अनुभव करता जाता है। अन्ततः कलियुग का अन्त पहुंचने तक में अपने को पूर्ण अन्धकार अर्थात्‌ जड पदार्थ के रूप में अनुभव करता है।
आत्मा में यह बल होता है कि वह अपने वर्तमान प्रकाश के अनुसार अपनी कामना पूरी कर सके। पुण्योत्पादन का कार्य करते रहे विना यदि कोई व्यक्‍ति सांसारिक किसी क्षेत्र में उन्नति के लिये अपना तन-मन समर्पित करता है पूरी निष्‍ठा से, और किसी भी प्रकार की अपवित्रता से अपने को बचाये रखते हुए, ऐसे में वह सफ़लता अवश्य पाता है। जबतक आत्मा का उस दिशा में बना बल कार्यरत रहता है तबतक वह उन्नति करता जाता है। परन्तु जैसे ही आत्मा का बल कुछ भी समय के लिये मन्द पड जाता है, या वह व्यक्‍ति सन्तोष के साथ आराम की स्थिति में आ गया रहता है, संसार से उसके किये गये उतने अधिक तीव्र सम्पर्क के कारण अविद्‍या का काला आवरण तीव्रता से अपना प्रभाव दिखाता है, और उसे धीरे-धीरे या सहसा संसार की अशुभताओं, मानसिक-चारित्रिक पतन आदि किसी भी प्रकार के संकट को देखना पडता है।
एक समृद्‍ध परिवार में सहसा कोई मर जाता है, कोई विक्षिप्‍त हो जाता है, कोई भयंकर रोग से ग्रस्त हो जाता है, किसी का धनार्जन डूब जाता है, इत्यादि - ऐसा क्यों होता है! क्योंकि वे केवल पुण्यभोग कर रहे होते हैं, पुण्योत्पादन नहीं। जैसे-जैसे पुण्य चूकने लगता है वैसे-वैसे उन्हें दुर्भाग्य की घटनायें झेलनी पडनी लग जाती हैं। किसी को अप्रिय जीवनसाथी मिल जाता है, किसी को अप्रिय लोगों के संग कार्य करना पडता है। अब भी पुण्योत्पादन का कार्य नहीं किया तो और अधिक हानि होगी, क्योंकि पुण्य का एकाउण्ट्‍ तो निरन्तर न्यून होता जा रहा है। साथ ही आत्मज्योति का निरन्तर न्यून होते जाना उसे उच्च स्थिति में रहने के योग्य न पा नीचे गिरा देता है।
संसार की सारी बातें तुलना में अच्छी या दुष्‍ट, लाभदायक या हानिकारक, आदि मानी जाती हैं।आज तुम जिन बातों को अपने अयोग्य मान रहे हो, समाज कल जब और अधिक गिर जायेगा तब ये ही बातें महत्‍त्व की जान पडने लगती हैं - और भी नीची गिरी बातों के भरमार से जब उनकी तुलना करोगे। संसार के साथ मत चलो, संसार मलिन से और भी अधिक मलिन, और भी अधिक भ्रष्‍ट होता जायेगा, मानव के नाम पर पशु और अधिक ही पशु दिखेंगे - तुम्हें भी पशु बन जाना पडेगा, नहीं तो आत्महत्या करनी पडेगी। मैं वो बातें कह रहा हूं जो परम ज्ञान की हैं, तुम्हारा बहुत पुण्य है जो ऐसी बातें तुम्हें सुनने-पढने को मिल रही हैं। नहीं तो देखो संसार के अधिकतर लोगों को - वे अध्यात्म का क,ख,ग भी नहीं जानते - बस जन्मते और मरते जितनी भी हानि पा। पर यदि सुनकर, पढकर भी कुछ कार्य नहीं किया तदनुसार, तो तुमने अपने पुण्यों से प्राप्‍त सौभाग्य के अवसर को व्यर्थ गंवा दिया। यह संसार निरन्तर नरक बनता जा रहा है, और कभी पूरा नरक बन जायेगा। पुत्र-पुत्रियों की सुरक्षा अपने ही गृह में न रह पायेगी, वे तब संसार में और कहां सुरक्षित रह सकते! निरन्तर सुख-सुविधाओं की न्यूनता और अधिक न्यूनता होती जा रही है। जीना कठिन जान पडेगा। मत अनुसरण करो संसार का। अध्यात्म का - सनातन अद्‍वैत दर्शन का अनुसरण करो - अपने को दुर्भाग्य के फेरे में पडने से रोको! यदि तुमने यह मान लिया है कि जो होगा वह देखा जायेगा, तो तुम भी, शीघ्र या विलम्ब से, समाज में एक दुष्‍ट व्य‌क्‍ति के रूप में उभर कर आओगे। वह रावण हो, हिरण्यकशिपु हो, कंस हो, राम हो, राजा हरिश्‍चन्द्र हो, बुद्‍ध हो, या अन्य कोई भी व्यक्‍ति, सब के सब मुक्‍त आत्मा के रूप में समान ही रूप से अच्छे थे। पर जिसने संसार में बहुत मन लगाया उसने अपना कल राक्षस के रूप में पाया। आरम्भ में सभी शुद्‍ध, पवित्रहृदय, निश्छल आत्मा थे, पर इस संसार से मन लगा - इसके संग-संग चलते हुए वे आज इतने दुष्‍ट हो गये। तुमने यदि संसार से मुख न मोडा तो तुम्हारा भी वही परिणाम होगा - उन दुष्‍टों में से एक बन जाओगे। एक बार कुछ भूतों ने कुछ मनुष्‍यों पर आक्रमण किया। मनुष्‍य मन लगा उन भूतों से लडे। पर जो-जो मनुष्‍य मरे वे भूतों के साथ मिल उन्हीं मनुष्‍यों को मारने लगे जिनके संग मिल कल तक लडते रहे थे। ऐसे ही यदि तुम संसार का संग करोगे तो आज तुम जितने भी अच्छे हो, कल उन्हीं दुष्‍टों के समूह में तुम्हें रहना है एक दुष्‍ट के रूप में - अपनी इच्छा से, या आरम्भ में मन मारकर भी। यह संसार मनुष्‍य के - मुक्‍त आत्मा के - लुट जाने का स्थान है। लुटकर वह असहाय - विवश हो जाता है, एक पंक्ति में खडा हो जाता है जो कल तक औरों पर शासन कर रहा था।
क्या तुम बहुत धनी हो, बहुत सौभाग्यशाली हो! किन्तु यह जान लो कि जो भिखारी आदि जो दरिद्र लोग हैं वे भी कभी पूर्व के जन्मों में तुम-जैसे धनाढ्य और भाग्यशाली रहे थे, परन्तु केवल पुण्य का व्यय किया, पुण्य का अर्जन नहीं। पुण्य का कार्य न करने तथा संसार में बहुत मन लगाने के कारण उन्होंने निज आत्मप्रकाश और पुण्य दोनों को खो दिया, और वे आत्मतेजस्‌ से हीन अभागे हैं। क्या तुम भी वैसी ही स्थिति अगले जन्मों में पाने जा रहे हो। अभी जो सुख-सुविधा पा रहे हो, उसे पाने का कितना महत्‍त्व है, क्योंकि कुछ ही दिनों या वर्षों के पश्‍चात् तुम गर्मी में असुविधाओं में साधारण व्यक्‍ति के समान दुःख पा रहे होगे। क्या अभी का लिया आनन्द तब काम आयेगा!
केवल मुक्‍त आत्मा का ही वास्तविक अस्तित्व है। इस संसार के समस्त स्वाद हमें परम्परा से प्राप्‍त होते हैं। चीनी वास्तव में मीठी नहीं होती, मिर्च वास्तव में तीखा नहीं होता, कुछ भी वास्तव में वैसा ही नहीं होता जैसा हम संसार में जानते-अनुभव करते हैं। ये स्वाद चूंकि ऐसे ही हम परम्परा से अनुभूत करते आये हैं, इसलिये हम भी, जन्म से ही, स्वभाव से ही, ऐसे ही स्वाद का अनुभव करते हैं। बालक को मां-पिता आदि अनेक बातों की जानकारियां विना बताये ही बुद्‍धि में प्राप्‍त रहती है। सिगरेट्‍ पीने में क्या आनन्द छिपा है! धुंये का स्पर्श जीभ, गले, आंखों को कभी भी आनन्द नहीं देता, परन्तु अन्य लोगों की देखा-देखी यह मानकर कि आनन्द मिल रहा है, सिगरेट्‍ पीते जाते हैं और प्रसन्न भी हो जाते हैं। यह प्रसन्नता सच में नहीं मिलती, मान ली गयी होती है, यह मानकर कि जिसमें पाश्‍चात्य लोगों तथा अन्य धनसमृद्‍ध लोगों को आनन्द मिलता है वही आनन्द है। उसे आनन्द नहीं मानने का उनमें साहस कहां! इसी प्रकार, सम्भोग में भी सुख का भ्रम होता है - लोगों की देखा-देखी भ्रम होता है, परम्परा से ही चला आ रहा है - क्योंकि दो शरीरों के कितने भी गहरे मिलन से - वीर्य का स्त्रीयोनि में स्पर्श से - अन्तः या बाह्‌य स्पर्श से - कितना सुख मिल सकता है! परन्तु मन पर इसे परम आनन्द मानने की वासना छायी रहती है, जबकि ऐसा करना आत्मा को वास्तव में सुख पाने के अयोग्य कर देता है - दुर्भाग्य की एक झिल्ली आत्मा पर डाल देता है। सिगरेट्‍ पी मनुष्य खांसता है - धुंआ उसके मुख के अन्दर-बाहर उसे कष्‍ट पहुंचा रहा है परन्तु वह यह मान कि यही सुख है पीये जा रहा है, धुंए का आलिंगन किये जा रहा है। इसी प्रकार संसार के समस्त सुख हमारे आत्मा को हानि पहुंचा रहे हैं तथा वास्तव में वे हमें कोई सुख नहीं दे रहे हैं, परन्तु मनुष्य स्वभाव से ही, जन्म से ही, लगा है उन सुखों को पकडने में - और आलिंगन कर सुखी मान लेने में - क्योंकि ऐसा ही सभी करते आये हैं।
मनुष्य के आत्मा के संग जुडा होता है उसके किये पुण्यों का प्रभाव, जिससे वह लोगों की श्‍लाघा/प्रशंसा पाता है, भव्य भवन में रहता है, कूलर्/एयर्‌कण्डीशन्‌ का शीतल/गर्म वायु उसके तन-मन को आनन्दित कर रहा होता है, सभी सुख-सुविधायें उसे मिलती रहती हैं। परन्तु प्रत्येक क्षण ये पुण्य निज फल दे हटते जा रहे हैं। तुम नया पुण्य स्वयम्‌ में समा नहीं रहे हो, तो ऐसे में जब ये पुण्य निकल जायेंगे तब तुम साधारण लोगों के समान पथ पर आ जाओगे - असफलता, निराशा, दुःख, कष्‍टों को झेलते हुए। यदि तुम्हें यह लगता है कि तुम्हारा बैंक्‌-बैलेंस्‌ तुमसे कौन छीन सकता है तो तुम पुनः भ्रम में हो क्योंकि मृत्यु पलक झपकते तुम्हें अगले जन्म ले जा वहां दुःखद परिस्थितियों में तुम्हें छोड देगा। अभी से निज आत्मप्रकाश को हानि से बचाने का प्रयास करो, नहीं तो जब तुम्हारा भाग्य नष्‍ट हो जायेगा तब तुम इन बातों को जानकर भी स्वयम्‌ का क्या भला कर पाओगे!

स्त्रियां यदि स्वयम्‌ धन अर्जित करती हैं तो वे विवाह कर पति से क्या लाभ पाती हैं! केवल सन्तान पाने के लिये किया गया सम्भोग तो चल सकता है, कभी कामनावश भी चल सकता है, किन्तु भोजन की आवश्यकता जैसा किया गया मनमाना सम्भोग उस स्त्री के आत्मप्रकाश को नष्‍ट कर देता है। यह आत्मप्रकाश का नाश साधारण बात नहीं है, क्योंकि आत्मप्रकाश के न्यून होने से भाग्य के साथ-साथ सुन्दरता भी नष्‍ट होती है, महत्‍त्व भी नष्‍ट होता है, स्त्री दासी-जैसी विचारणीय होने की योग्यता की ओर बढ जाती है। जो स्त्रियां निज शरीर को दे धन या कोई सफलता पाती हैं वे निज आत्मप्रकाश को - निज आत्मा को बेच धन आदि पाती हैं। जबकि इसी आत्मप्रकाश को, सनातन अध्यात्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए, ध्यान-ज्ञान से मांजकर संसार की कोई भी ऊंचाई पायी जा सकती है। और तुमने कुछ सौ, सहस्र, या लाख रुपयों को ले उसे नष्‍ट कर दिया!!!